संत कबीर दास: भक्ति आंदोलन के क्रांतिकारी युगपुरुष
🔹 प्रस्तावना
संत कबीर दास भारतीय धार्मिक और सामाजिक परंपरा के एक ऐसे अनोखे स्तंभ थे, जिन्होनें अंधविश्वास, जातिवाद और धार्मिक हठधर्मिता के खिलाफ अपनी कलम और कविता से एक शब्द-क्रांति छेड़ी। उनका जीवन केवल भक्ति या कविता तक सीमित नहीं था, बाल्की सामाजिक क्रांति का एक ज्वलंत प्रतिनिधि था।
🔹 जन्म और प्रारंभिक जीवन
कबीर दास का जन्म 1398 के आस-पास, वाराणसी के लहर तारा तालाब के पास मन जाता है। उनके जन्म को लेकर कैसी और कहानियाँ हैं। कहीं जगह लिखा है कि उनका जन्म एक ब्राह्मण मां से हुआ था, लेकिन उन्हें एक मुस्लिम जुलाहा दम्पति, नीरू और नीमा ने भगवान ले लिया था। संत कबीर ने खुद को “न हिंदू न मुसलमान” कहा – और यहीं उनके विचार की जड़ थी।
🔹शिक्षा और ज्ञान का मार्ग
कबीर पढ़ नहीं सके क्योंकि उनका परिवार गरीब था, लेकिन उन्हें अनुभव, लोकज्ञान और भक्ति के माध्यम से अपने विचार विकसित किये। उनके गुरु के रूप में संत रामानंद का नाम लिया जाता है। कहा जाता है कि एक दिन कबीर ने घाट पर संत रामानंद के चरण छू लिए, तभी से उनका जीवन बदल गया।
🔹विचारधारा
कबीर दास ने अपने दोहों, साखी और पैरों के माध्यम से समाज में व्याप्त क्रांतियों का खुला-खुला विरोध किया।
उनके कुछ प्रमुख विचार:
जाति-पात का विरोध
मंदिर-मस्जिद दोनो से परे भक्ति
गुरु की महिमा
मन के शुद्धिकरण की अवश्यकता
प्रेम और दया का पथ
उनका दोहा इस बात को स्पष्ट करता है:
“कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।”
🔹 काव्य और साहित्य योगदान
कबीर दास ने अपनी रचनाएँ साखी, सबद और रमैनी के रूप में लिखीं। उनकी भाषा ‘संत भाषा’ कहलती है, जिसमें हिंदी, अवधी, भोजपुरी और ब्रज का संगम है।
उनके दोहे छोटे होते हुए भी गहरा अर्थ रखते हैं:
“धीरे–धीरे रे मन, धीरे–धीरे सब कुछ होए,
माली सींचे सौ घरा, ऋतु आये फल होय।”
ये दोहे केवल भक्ति का संदेश नहीं देते, बालक जीवन के प्रतीक पहलू को छू जाते हैं – धैर्य, प्रेम, शक्ति, मोह, समय का महत्व, और मनुष्य की असलियत।
🔹धर्म के नाम पर भेदभाव का विरोध
कबीर ने हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों में व्याप्त हठधर्मिता पर प्रहार किया। उन्हें एक तरफ जहां मंदिर की मूर्ति पूजा को निरर्थक बताया गया, वहीं दूसरी तरफ मस्जिद के मुल्ला की पोकर पर भी प्रश्न उठाया गया।
“कांकर पाथर जोरि के, मस्जिद लाई चुनै,
ता चढ़ मुला बावराया, क्या बाहर हुआ खुदाए?”
उनका उपदेश्य था – ‘ईश्वर मन में है, धर्म व्यक्ति की अंतर-आत्मा का विषय है, न कि रिवाजों का।’
🔹कबीर पंथ का उदय
उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्यों ने कबीर पंथ की स्थापना की। आज भी लाखों लोग उनके पथ पर चल रहे हैं। कबीर पंथ भारत के कई राज्यों में, विशेष उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार में प्रचलित है।
🔹मृत्यु और अंतिम संदेश
संत कबीर दास का देहान्त 1518 में हुआ मन जाता है। एक कथा के अनुरूप, उनकी मृत्यु के बाद हिंदू और मुस्लिम दोनों संप्रदाय उनका अंतिम संस्कार अपने तरीके से करना चाहते थे। परंतु जब उनका कफन उठाया गया, तो वाहा सिर्फ फूल थे – जिन्हे दोनों सम्प्रदायों ने बांट लिया।
ये कथा उनके अंतिम संदेश को व्यक्त करती है – “प्रेम और सद्भावना ही सबसे बड़ा धर्म है।”
🌟 कबीर के जीवन से सीखें लायक बातें:
- धरम से पहले इंसानियत
- भेद-भाव से ऊपर सोच
- अनुभव पर अधारित ज्ञान
- गुरु की महिमा का स्मरण
- प्रेम और करुणा की भावना
- सत्य और असलियत का अन्वेषण